राजा मोरध्वज की कहानी
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राजा मोरध्वज की कहानी

दोस्तों !! क्या आप जानते है ? राजा मोरध्वज के बारे में ?अगर नहीं ! तो में आज आपको इस शॉर्ट स्टोरी में बताता हूं उनके जीवन के बारे में। 
राजा मोरध्वज एक ऐसे संत प्रिय और दयालु राजा हुए, जिनकी नगरी में ब्राह्मण और संतों के लिए इतना आदर भाव था, कि वह ब्राम्हणों और संतो के लिए अपने प्राण भी न्योछावर करते थे।

एक दिन राजा मोरध्वज अपनी नगरी में घूमने हेतु निकले, उनके जाने के पश्चात चार चोर भिक्षुक का भेष धारण कर उनकी नगरी में आए। 

चोरों ने यह कथाएं बहुत सुन रखी थी, कि राजा मोरध्वज परम दयालु एवम संत प्रीय राजा है, उनकी नगरी में संतों का आना मना नहीं है, एवम वहां संतों के लिए आदर है।

इसी बात को जान कर चोर वहां पर संत का भेष बनाकर चोरी करने की मैली मुराद से गए, उनको पता था कि यह मोरध्वज की नगरी है, वह जानते थे कि यहां संतों के लिए आदर भाव है, और संतों को यहां आने के लिए कोई रोक नहीं सकता। 

इसलिए ही उन्होंने चोर का भेष धारण किया, और राजा मोरध्वज की नगरी में उनका जो रानी महल था। वहां पर भिक्षा मांगने हेतु गए रानी मां ने उनको पूर्णता आदर भाव से प्रणाम किया और पानी से उनके पैर धोएं, और बोली है महाराज !! आईये मैं आपको भोजन करवाती हूं, पर चोर तो भोजन हेतु नहीं आए थे, उनकी नजर रानी के सोने के आभूषणों पर ही थी।

वह बस एक दूसरे को देख रहे थे, और मन ही मन सोच रहे थे कब सिपाही इधर उधर हो और हम मौका मिलते ही रानी को लूंट ले। 

वह ऐसा सोच ही रहे थे तभी वह मौका भी आया जब सिपाही या कोई सेवक गण को न पाकर चोरों ने रानी मां पर हथियार से प्रहार किया और रानी ने अपने प्राण वहीं त्याग दिए। 

चोरों ने उनके सारे ज़ेवर एवम मूल्यवान चीज़े लूंटली और चोरी करके भागने लगे, तभी अचानक से राजा मोरध्वज उनके सामने आ गए, उन्होंने कहा, अरे साधु महाराज !! आप मेरी नगरी में ऐसे वापस जा रहे थे मैं नहीं था इसलिए ? आप चारों को मैं ऐसे ही नहीं जाने दूंगा, मेरे महल में पधारिए मैं आपकी सेवा, सम्मान करुंगा। 

राजा मोरध्वज के मुख से इतने वचन सुनते ही, चोर आश्चर्य में पड़ गए और थोड़ा घबरा गए उन्होंने सोचा अभी तो महल से आ रहे हैं। 

महल में जो हुआ वह, अगर राजा को पता चला तो हमें, मार देगा इसलिए, घबराते हुए और अन्य कोई विकल्प न होने पर चोर राजा के साथ चले तो गए, पर उनके मन में एक डर था, वह डरते डरते राजा मोरध्वज के साथ उनके महल जाते हैं। 

राजा मोरध्वज अपनी रानी को आवाज देते हैं, वह कहते हैं, देवी, सुन रही हो ? हमारे यहां साधु आए हैं !! बाहर आइये, हमारे यहां साधु आए हैं !! बाहर आइए !! पर दो बार बुलाने पर भी रानी महल का द्वार नहीं खुलता !! तब चोर मन ही मन गभराते है।

उनके मन में विचार आता है, की रानी को तो अभी हम मारकर आए हैं, उनकी हत्या कर कर आए हैं तो रानी कहां से बाहर आएगी !!

पर इन सब बातों से अनजान राजा मोरध्वज तो निर्दोष भाव से अपनी रानी को आवाज लगा रहे हैं, देवी सुन रही हो ? साधु आए हैं !! देवी सुन रही हो ? साधु आए हैं !!
  
तीसरी बार राजा मोरध्वज ने आवाज लगाई और रानी ने जिससे चारों साधुओं के चरण धोएं थे, वह चरनामृत वहां पड़ा था।

वह चरनामृत लेकर राजा मोरध्वज रानी महल के दरवाजे पर छिड़कते हैं और आवाज लगाते है, सुन रही हो ? साधु आए है बाहर आओ, देवी !! और चरणामृत छिड़कते ही माताजी रानी द्वार खोलकर बाहर प्रकट होती है !! 

यह देखकर चारों चोर आश्चर्यचकित हो जाते हैं वह सोचते हैं, अभी तो हमने उनकी हत्या की थी इतनी देर में यह वापस कहां से आ गई ? 

बाद में राजा मोरध्वज और रानी ने उन चारों की सेवा की और आदर भाव से उन्हें भोजन कराया, थोड़ी देर बाद चोरों ने जाने की आज्ञा मांगी, और राजा ने उन्हें जाने की अनुमति दी, पर राजा मोरध्वज का यह चमत्कार और भक्ति देखकर उन्होंने भी सोचा कि अब यह भेष आजीवन उतारना नहीं है।

इस तरह चोरों ने भी भगवा भेष सदा के लिए धारण कर लिया और प्रभु भक्ति करने लगे। 

यह बात एक बार नारदजी ने श्री हरि विष्णु को बताई, और उनसे कहां,भगवान आपके भक्त मोरध्वज पर तो ऐसी ऐसी परिक्षाएं और विपतियां आ रही है !! 

नारदजी की बात सुन भगवान नारायण कहते है, मोरध्वज वह तो मेरा परम भगत है, में स्वयं म उसके आघिन हूं, है नारदजी कृपया मुझे बताए, मेरे भक्त मोरध्वज को क्या संकट है ? 

नारदजी चोरों वाली सारी कहानी जीयूं की त्यों भगवान को सुनाते है। तब भगवान श्री हरि विष्णु अपने सुदर्शन चक्र को मोरध्वज की नगरी में रक क्षण हेतु जाने का आदेश देते है।

भगवान सुदर्शन से कहते है, जाओ सुदर्शन, मोरध्वज की नगरी में जाओ, आज से मोरध्वज को नुकसान पहुंचाने वाला कोई भी उसकी नगरी में नहीं आना चाहिए। 

भगवान नारायण का आदेश मिलने पर सुदर्शन दिन रात मोरध्वज की नगरी की रक्षा हेतु स्थापित हुए। 

इस बात को थोड़ा समय बिता और एक बार मोरध्वज की नगरी में यमदूत आए, किसी आत्मा को लेने, पर सुदर्शन चक्र ने उनको बीच में ही रोक लिया, तब यमदूतों ने सुदर्शन से पूछा, कृपया बताएं आप हमें हमारा कार्य करने से क्यूं रोक रहें है ? 

तब सुदर्शन बोलें हमें भगवान नारायण का आदेश है, में आपको यहां प्रवेश की अनुमति नहीं दे सकता। तब यमदूत आश्चर्य में पड गए और यह बात यमलोक में जाकर यमराज जी को बताई।

तब यमराज श्री हरि विष्णु जी के पास गए, और उनसे विस्मय कारी रूप से प्रश्न किया, प्रभु यह नए नियम ? उन्होंने भगवान को अपनी समस्या बताई, तब भगवान श्री हरि ने उन्हें बताया कि हां यमराजजी वो सुदर्शन चक्र मैंने ही भेजा है, मोरध्वज मेरा परम भक्त है।

यह बात सुनकर यमराज जी बोले, यह तो ठीक है, प्रभु भक्त तो होगा वह आपका !! पर कभी भक्त की परीक्षा की है ? कभी उन्हें परखा है ? या फिर यूंही भगत सिर्फ नाम के है ? 

भगवान श्री विष्णु यमराज को कहते है, नहीं परीक्षा तो नहीं की कभी !! यमराज कहते है, तो चलिए उनकी परीक्षा लीजिए बाद में उन्हें अपने परम भक्त का पद दीजिएगा। 

यह बात पूर्ण होते ही, भगवान श्री हरि विष्णु ब्राह्मण का भेष धारण करते है, और यमराज शेर का भेष धारण करते है।
दोनों मोरध्वज की परीक्षा करने हेतु उनकी नगरी में आते है, मोरध्वज को उनके सैनिकों द्वारा सूचना मिलती है, की नगर में कोई अलौकिक या सिद्ध ब्राह्मण देव जो अपने साथ शेर को लेकर आए है।

यह बात सुन मोरध्वज को भी उनसे मिलने की तीव्र इच्छा हुई। उन्होंने ब्राह्मण और उनके शेर को दरबार में बुलाने का आदेश दिया।
दोनों दरबार में आए और मोरध्वज ने उनको प्रणाम किया बोलें प्रभु, महाराज में आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ? तब ब्राह्मण के रूप में भगवान श्री हरि बोले, है मोरध्वज, में अत्यंत भूखा हूं, मुझे भूख लगी है, मुझे खाना खिलादो। 

पर है मोरध्वज, मेरा एक नियम है, की में अपने शेर को खाना खिला कर ही खाता हूं, यदि तुम मेरे शेर का पेट भर सको और इसे पेट भर भोजन खिला सको तो इसके खाने के बाद में भी पेट भर खाना खाऊंगा। 

मोरध्वज बोले कोई बात नहीं ब्राह्मणदेव जैसा आप कहें में अभी आपके शेर के लिए मांस का प्रबंध करवाता हूं। यह बात सुनकर भगवान बोले नहीं मोरध्वज रुको।

मेरा यह शेर ऐसा वैसा मांस नहीं यह तो केवल बारह, तेरह साल के बच्चे का ही मांस खाता है, यह तो केवल उसका आदि है।

अगर तू दे सकता है तो वह दे, नहीं तो में भूखा ही लोट जाऊंगा, यह बात सुन मोरध्वज और पूरी सभा सुन्न हो गई, तब मोरध्वज ने अपने एक मात्र संतान ताम्रध्वज जो की सिर्फ बारह साल के थे उनके बारेमें सोचा और अपनी पत्नी से इस बात का ज़िक्र किया।

उन्होंने अपनी पत्नी को पूरी बात बताई ऐसी घटना हुई अगर हमें ब्राह्मणदेव को भोजन करवाना है तो पहले उनके शेर को किसी बारह, तेरह साल के बच्चे का मांस खिलाना होगा तभी उनका शेर खायेगा वरना वह ब्राह्मण देव भी भूखे लोट जाएंगे।

हमें अतिथि के तिरस्कार का पाप लगेगा, तब उनकी पत्नी ने अपने पति के मन की बात समझ ली, और कहा कोई बात नहीं हमारे एक मात्र राजकुमार ताम्रध्वज बारह साल के है।

उनको आप ले जाएं और उस शेर को भोजन करा दीजिए, यह बात सुन मोरध्वज अपनी पत्नी की इस उदारता और पति भक्ति पर अति प्रसन्न हुए, और अपने बेटे ताम्रध्वज को अपने साथ दरबार में लाए, और कहा यह लीजिए ब्राह्मणदेव यह रहा आपका बारह तेरह वर्ष के बालक का भोग निसंकोच होकर अपने शेर को कहे इसे ग्रहण करें। 

तब भगवान ने और परीक्षा लेते हुए कहा नहीं मोरध्वज ऐसे नहीं अपने बेटे से भी एक बार पूछकर देखो अगर वह कहेगा तो ही मेरा शेर इसे ग्रहण करेगा, तब ताम्रध्वज ने ब्राह्मणदेव से कहां !! है ब्राह्मणदेव आप निश्चित होकर अपने शेर से मेरा भक्षण करने को कहें मेरे इस शरीर का मांस यदि किसी ब्राह्मण देव की सेवा में विलीन होगा तो यह तो मेरा सौभाग्य होगा, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात क्या ? होगी की में इस शरीर से आपके किसी काम आऊंगा। 

ताम्रध्वज की यह बात सुन भगवान और यमराज दोनों एक दूसरे की और देखते है और मन ही मन भगवान नारायण यमराज से कहते है।

देख रहे हो ना यमराज यह है मेरा परम भगत मोरध्वज इतना कहते ही भगवान विष्णु और यमराज दोनों अपनी लीला समाप्त कर अदृश्य हो जाते है और वापस अपने अपने धाम लोट जाते है, सारी सभा यह देखकर आश्चर्य में पड जाती है, सभी सोचते है, कहां गए वो ब्राह्मण और शेर ? मोरध्वज भी अपने सैनिकों को उन्हें ढूंढने का आदेश देते है, पर वे कभी मिलते नहीं। 

इस बात को थोड़ा समय बीता एक बार अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से प्रश्न करते है, कान्हा तुम्हारा सबसे श्रेष्ठ भगत कोन है ? जब भगवान राजा मोरध्वज की तारीफ़ करते है तो अर्जुन उस बात का अस्वीकार करते है, और परीक्षा लेने को कहते है, तभी वह मोरध्वज को सर्वश्रेष्ठ भक्त स्वीकार करेंगे।
यह बात सुन श्री कृष्ण कहते है, हां पार्थ यह तो मां वसुंधरा है, इसमें तो कई सती और जती समय – समय पर होते रहते है, फिर भी अर्जुन नहीं मानते वे कहते है, प्रभु में नहीं मानता।

अर्जुन की यह बात सुन भगवान श्री कृष्ण कहते है, चलो तो में तुमको दिखाता हूं, भगवान उन्हें राजा मोरध्वज की नगरी में लाते है, भगवान फिर ब्राह्मण का भेष धारण करते है, और अर्जुन को बारह साल के बालक बनाते है।
दोनों मोरध्वज के नगर में जाते है, मोरध्वज उनको आदर भाव से बुलाकर सम्मान करते है।

मोरध्वज कहतें है, बोलिए प्रभु हुकुम कीजिए, आपकी क्या सेवा करूं ? 

ब्राह्मण रूप में आए भगवान कहते है, मोरध्वज, में जब तुम्हारी नगरी से जा रहा था, तब मुझे एक भूखा शेर मिला, और वह मेरे बारह साल के बच्चे का आहार करना चाहता था। 

तब बहुत विनंती और प्रार्थना करने पर उसे मेरे बेटे पर और मुझ पर दया आ गई, और उसने मुझे एक सुझाव दिया।

उसने कहां यदि यहां के राजा मोरध्वज अपने आधा शरीर का दान देंगे तो में उसे खाकर अपनी भूख मिटा लूंगा और तेरे बच्चे को छोड़ दूंगा। 

भगवान बोले इसलिए है, मोरध्वज में तुम्हारे आधे शरीर का दान लेने आया हूं, सुना है मोरध्वज तुम बड़े धर्मी और परोपकारी राजा हो !!

तो है, राजन मेरे इस बारह साल के बच्चे की जान अपना आधा अंग देकर बचा लो।

यह बात सुन मोरध्वज ने कहां यदि आपका बच्चा मेरे आधा शरीर के दान से बच जायेगा तो में जरूर अपने आधे अंग का दान आपको दूंगा।

पर मोरध्वज की असली परीक्षा तो अब होनी थी, भगवान ने और ज्यादा कठिन परीक्षा की और मोरध्वज से बोलें, हां, मोरध्वज तुम मुझे अपना आधा अंग तो दोगे पर मेरी एक शर्त है।

भगवान, ने अति कठिन शर्त रखी और मोरध्वज से कहां,
है, मोरध्वज मुझे तुम्हारे आधे अंग का दान तुम्हारी पत्नी और बच्चे से चाहिए।

भगवान ने कहां तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा बेटा दोनों तुम्हें बीच में से काटे पर तुम तीनों में से किसकी भी आंख में आंसू नहीं आने चाहिए, वरना में यह दान का स्वीकार नहीं करूंगा।

मोरध्वज कहते है, आपकी सारी शर्ते मुझे मंजूर है, इतना कहकर मोरध्वज करवत मंगवाते है, और उनकी पत्नी और बारह साल का बेटा उनके सिर के बीच से काटना शुरू करते है।
करवत नाक तक पहुंचते ही, राजा मोरध्वज की बाएं आंख में आंसू निकल ने लगे, तब भगवान ने करवत रुकवा दी और मोरध्वज से कहां में यह दान नहीं ले सकता मैंने कहां था राजन आप तीनों में से किसकी भी आंख में एक बूंद भी आंसू नहीं आने चाहिए।

इस लिए में इस दान का अस्वीकार करता हूं, तब मोरध्वज बोलें रुकिए प्रभु, यह आंसू मेरा अंग कट रहा है, इसलिए नहीं निकल रहें, प्रभु यह तो मेरा दायां और बायां अंग एक दूसरे से बात कर रहे है, मेरा बायां अंग, दाएं अंग से कह रहा है, तू कितना भाग्यशाली है, जो तेरा भोग किसी ब्राह्मण देव की सेवा और भगवत कार्य अर्थ जा रहा है।

इस लिए मेरी बाएं आंख से आंसू निकले प्रभु आप मेरी इस गलती को माफ करें और मेरे आधे अंग का दान स्वीकार करें। 

मोरध्वज की यह बात सुनते ही, भगवान श्री कृष्ण चतुर्भुज स्वरूप में और अर्जुन,अपने असली रूप में राजा मोरध्वज को दर्शन देते है।

तब अर्जुन, राजा मोरध्वज की इस प्रभु भक्ति से नतमस्तक होते है, और भगवान श्री कृष्ण की बात पर सहमति जताते है, और मोरध्वज को भगवान का परम भक्त स्वीकार करते है।










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