Narad Muni Story In Hindi ।। नारद मुनिजी की जीवन कथा ।।
header ads

Narad Muni Story In Hindi ।। नारद मुनिजी की जीवन कथा ।।

Narad Muni Story In Hindi

।। नारद मुनिजी की जीवन कथा ।।


देवर्षि नारद के बारे मे कहा गया है की जिनके मुख पर कभी जूठ नहीं आता। कुछ लोग गलत कहते हैं की नारद मुनि लड़ाई जघडा करवाने वाले है। इनका काम भड़काना है। ये बात सरासर गलत है। 


जिनको भी नारद जी मिले उन्हें भगवान अवश्य मिले हैं। सिर्फ़ एक नारद जी को ही भगवान का हृदय कहा गया है।


 उनके जन्म की कथा के बारे मे ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा गया है। नारदजी स्वयंम श्रृष्टि रचयता परम पिता श्री ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। 


जो भगवान् ब्रम्हा के कंठ से पैदा हुए हैं। ब्रह्मा जी के द्वारा उत्पती होने के बाद भगवान् ब्रम्ह ने इनको आदेश दिया कि अब जाओ बेटा , और जाकर इस संसार को आगे बढाओ, सृष्टि कार्य में सहयोग करो। 


नारद जी ने ब्रम्हा जी की बात को सिरे से नकार दिया।
नारद जी ने कहा कौन मूर्ख होगा जो भगवान के नाम रूपी अमृत को छोड़ संसार रूप विष का भक्षण करेगा?
नारदजी के मना करने पर ब्रह्मा जी ने उन्हें श्राप दिया - तुम अपने पिता का आदेश नहीं मान रहे हो, यह कहकर भगवान् ब्रम्ह देव ने उनको श्राप दिया तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो, तुम गन्धर्वयोनि में जन्म लेकर कामविलास रत स्रियों के वशीभूत हो जाओगे।


नारदजी ने कहा- कुमार्गी,कुकर्मी हों उनको श्राप देना ठीक है, मुझे अकारण ही श्राप दिया गया है। फिर नारद जी ब्रमह देव को कहते हैं- हे भगवान श्राप तो दिया पर मुझ पर थोड़ी कृपा कीजिए जो - जो योनियों में मेरा जन्म हो, वहां भगवान का नाम और भक्ति मुझे ना छोड़े।


नारद जी भी अपने पिता को श्राप देते हे, पिताजी ! आपने मुझे निरअपराध को अकारण ही श्राप दिया है। इसलिए मैं आपको श्राप देता हूँ। तीन कल्प ( 4.32 billion years ) तक धरती लोक में आपकी पूजा नहीं होगी आप के मन्त्र, स्त्रोत, कवच सब लोप हो जायेगा।


भगवान् ब्रम्ह देव के श्राप के कारण नारदजी गंधर्व योनि में जन्मे। उन्होंने उपबर्हण के रुप में जन्म लिया। जो बड़ा रूप का अभिमानी था। एक बार भगवान् ब्रह्माजी की सभा में सब देवता और गंधर्व भगवान् का भजन कर रहे थे उस समय वहां उपबर्हण (नारदजी) भी अपनी पत्नियों के साथ श्रृंगार भाव से गए उपबर्हण के इस अशिष्ट आचरण देख ब्रह्मा जी क्रोधित हो गये एवम् उनको ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का श्राप दिया।


इसके अलावा नारद मुनिजी की कथा का श्रीमद भागवत पुराण में विस्तार से वर्णन मिलता हैं।


श्री वेदव्यास जी द्वारा ४ वेदों की रचना की गयी।          
1. ऋग्वेद 
2. यजुर्वेद 
3. सामवेद 
4. अथर्ववेद 


इसके बाद पुराण और महाभारत को लिखा। इतना लिखने के बाद भी उनके मन को संतोष न हुआ। उनका मन कुछ विचलित हो गया। व्यासजी सरस्वती नदी के किनारे में ध्यान धर कर मन-ही-मन विचार करने लगे और उन्होंने कहा — मैंने इतना सब लिखा लेकिन फ़िर भी मेरा तत्व ज्ञान अपूर्ण क्युं जान पड़ता है ऐसा क्यूं है मेरा मन शांत क्यूं नहीं है। 


कुछ न कुछ छूट रहा है मुझे इसका उत्तर चाहीए तभी देवर्षि नारदजी प्रगट हुए। 

उन्हें देख व्यासजी अपने आसन से उठ गए और उन्हे आदर दिया एवम् नारद जी की विधि विधान पूर्वक उनकी पूजा की।


नारदजी कहते है : हे महामुनि व्यासजी! आपने सब कुछ लिख दिया पर संतुष्ट नहीं हैं ?


व्यासजी : जी हां मूनिवर सब लिखने के बाद भी मेरे मन को संतोष प्राप्ति नहीं हो रही। कृपया आप मुझे इसका कारण बताएं। आप तो स्वयंम ज्ञान के भंडार हैं।


नारदजी : हे महामुनि! मे इस विषय पर ऐसी मान्यता रखता हूं कि जिस शास्त्र या ज्ञान से भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह अधुरा है। आप ने अपने शास्त्रों में धर्म और अर्थ का वर्णन किया।


लेकिन आपके उस वर्णन में आपने भगवान् का संपूर्ण भाव पूर्वक वर्णन नहीं किया इीलिए आप भगवान गिरधर नागर ( श्री कृष्ण ) की लीलाओं का वर्णन कीजिये, एक ऐसे ग्रन्थ को रचे जो भक्ति, ज्ञान और वैरागय से परिपूर्ण हो।


फिर नारद जी कहते है, मैं मेरे पूर्वजन्म की कथा आपको सुनाता हूँ। पूर्वजीवन में ब्राम्हणो की दासी का लड़का था। एक दिन कुछ संत चातुर्मास करने हेतु गाँव में आये। 


वह हररोज सत्संग करते और माँ मुझे उस सत्संग में साथ ले जाती। एक दिन सत्संग समाप्त होने के बाद भंडारे का आयोजन हुआ। मेरी माँ उस भंडारे के बर्तनों को मांज रही थी और मैं खेल रहा था उस दौरान वहां कुछ संत आये और मुझसे बोले बेटा! तेरी माँ संतो की कितनी सेवा कर रही है तु भी कुछ सेवा कर बेटा। 


उस वक्त मैं पांच वर्ष का अबोद्ध बालक था। संतों ने मुझे एक काम दिया लें बेटा तू संतो के भोजन के बाद उनकी जूठी पतिलियो को बाहर फेंक आना।


नारदजी कहते हैं, व्यास जी, मैंने वैसा ही किया जैसा संतों ने कहां उन पत्तलों फेंकते-फेंकते सुबह से शाम का वक्त हो गया पर मुझे भोजन के लिए किसी ने नही पूछा। भूख तो बहुत लगी थी इसलिए मैंने बर्तन में से संत का झूठा प्रसाद आरोग लिया। उस प्रसाद को खाने से मेरी आत्मा तृप्त हो गई और मेरे सारे पाप धुल गये। 


उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध होने लगा और वह जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी तरह का भाव मेरा हो गया। थोड़े दिनों बाद एक संत ने अपने पास बुलाया खाने के लिए थोड़ा भोजन दिया।


जब सभी संत चतुर्मास पूर्ण होने पर जाने लगे एवम् वासुदेव गायत्री मन्त्र मुझे दिया।
।। ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च॥
‘हे प्रभु! आप भगवान श्री वासुदेव को नमन। हम आपका मन से ध्यान करते हैं। प्रदुम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमन है।


दिवस रात मन्त्र का जप और श्री हरि का ध्यान करता था। पर मेरी माँ मुझे ऐसा करने से रोकती थी। मेरे ध्यान बैठने पर वह मुझे कहती की बेटा, तेरे दोस्त तुझे बुला रहे हैं, जा जाकर उनके साथ खेल या तो दूध पी लो, भोजन कर लो।  
उसकी ममता और स्नेह ने मुझे जकड़ रखा था।
एक समय की बात है, माँ गाय दुहने के लिये रात के समय निकली। रास्ते उनको साँप ने काट लिया, इसमें ना तो साँप दोष, ना तो मेरी मां का दोष यह तो काल प्रेरणा थी। यह सोचकर मैंने कहा, भगवान के भक्तों का सदैव मंगल हो भगवान उसी कारण बंधा हुआ है। इसके मां का क्रिया कर्म कर के मैं उत्तर दिशा की और चला।


एक अघोर वन में जाकर वहां एक पीपल के नीचे बैठ गया तथा संतो द्वारा दिए उस मन्त्र का जाप निरंतर करने लगा।
मेरी इस निरंतर भक्ति से भगवान प्रकट हो गये। 


थोड़े समय बाद आकाशवाणी हुई – हे वत्स, मुझे खेद है, इस जन्म में तुम मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। जिनकी वासनाएँ पूर्णत: शान्त न हुई हो, वैसे अध योगि को मेरा दर्शन नहीं हो सकता। पर अगले जन्म में तुम्हे मेरे दर्शन अवश्य होंगे। और अब मैं इस कारण नारद हूँ।


भगवान की कृपा से मुझे वैकुठ मे स्थान मिला। मेरे जीवन में भगवद्भजन अखंड रुप से चलता रहता है। इस वीणा को मुझे स्वयंम भगवान् ने दी है। इस से मैं सिर्फ भगवान का भजन करता हूँ।


।। देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।।
।। मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ।।
  
 इस वीणा के पर तान पर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हूं ओर सारे संसार में भ्रमण करता हूं। भगवान् को भी मेरा गुणगान अति प्रिय हैं।


पर जिन मन्युष्यो का मन सदैव भोग विलास की कामना से आतुर हो, उनको सागर रूपी इस भव सागर को तरने मे समय लग जाता हैं। यह मेरा खुद का अनुभव है।


हे व्यासजी! आप निष्कलंक है। मैंने आपको वह सब प्रश्नों के उतर दे दिए हैं, जन्म और साधना तथा आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बताया है। अब आप श्रीमद भागवत ग्रन्थ का निर्माण करिए। 


नारद जी ने व्यास जी के असंतोष दूर किया और वेदव्यास जी ने नारद जी की बात मान कर श्रीमद भागवत पुराण की रचना कि।




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ