महान परोपकारी राजा सीबी की कहानी
header ads

महान परोपकारी राजा सीबी की कहानी

‌शिबी राजा की कथा : महराजा शिबि एक दिन शिकार की तलाश में जंगल में जाते हैं। 

‌शिकार की तलाश में महाराजा शिबी को रात हो जाती है भटकते - भटकते महाराजा को ( क्षुधा ) लग जाती है और वे थक हार कर एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते है।
‌उस अंधेरी रात और जंगल के सन्नाटे में थके हारे महराजा शिबी विचार कर है कि अब में क्या करू एक तो शिकार हाथ आया नहीं और उपर से रात भी हो गई।

‌अब लोट कर जाऊ तो भी कैसे इस रजनी और क्षुधा से में पार पाऊं तो कैसे ?

‌महाराजा पेड़ के नीचे बैठे - बैठे यह सोच विचार कर रहे थे तभी उस पेड़ के उपर रहने वाले कपोतक ( कबूतरों की प्रजाति का एक पक्षी ) का जोड़ा उनको देखता है और दोनों पति पत्नी ( कपोतक पक्षी का जोड़ा ) आपस में बात करते है।
‌कपोतक पति अपनी पत्नी से : है प्रिये सुनो यह तो कोइ मानव जान पड़ता है। देखरही हो ?

‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हां स्वामी और काफी थका हारा और निराश लग रहा है।

‌कपोतक पति अपनी पत्नी से : प्रियें हमें इसकी कुछ सहायता करनी चाहिए। यह मानव हमारे आश्रय में आया है। हमें हमारा आश्रय धर्म निभाना चाहिए। तुम क्या कहती हो ?

‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हां स्वामी आपने बिल्कुल उचित धर्म की बात की हैं में आपकी बात से सहमत हूं, पर स्वामि हमारा यह पक्षी अवतार और वह मनुष्य हम भला इतने छोटे से शरीर से उनकी क्या सहायता कर पाएंगे?

‌दोनों पति पत्नी ( कपोतक का जोड़ा ) चिंतित हो कर सोच में डूब हैं।
‌थोड़ी देर बाद रात और गहरी होती है और ठंड धीरे धीरे ओर बढ़ने लगती है। महाराजा शिबी ठंड से कांपने लगते है।

‌महाराजा शीबि को इस हालत में देख कर कपोतक की पत्नी से रहा नहीं जाता और कपोतक की पत्नी अपने पति से कहती है।

‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हे स्वामी मुझसे अब इस मनुष्य की ऐसी हालत अब ओर देखी नहीं जाती।

‌अगर हम आज इस मनुष्य की यथा शक्ति मदद ना कर पाये और यह मनुष्य अतिथि इस घोर जंगल में हमारे इस आश्रय के नीचे हमारे नज़रों के सामने मर गया तो हे स्वामी हम जीवन भर अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे और उपर हम हमारा आश्रय धर्म भुलकर उस परमात्मा को क्या मुंह दिखाएंगे ? ऐसा सेवा का अवसर बार बार नहीं आयेगा।

‌कपोतक पति अपनी पत्नी से : तो प्रीयें अब तुम ही कहो में क्या करूं ?
‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हे स्वामी नाथ आप अभी इसी क्षण जाए और कहीं से जलती लकड़ी उठा कर के इस मन्युष्य के सामने रख दे जिससे अग्नि प्रगट हो सकें ओर यह मनुष्य अतिथि जो भगवान के समान हे उसकी ठंड उड़ सके।

‌कपोतक पति अपनी पत्नी से : हा प्रिये तुमने बिलकुल सही कहा हे, में अभी उड़कर जली लकड़ि ले आता हूं।

‌अपनी पत्नी की बात मानकर कपोतक उड़कर जंगल से थोड़े दुर गावं में जाता हे ओर वहां एक शमशान में जल रही चीता की लकड़ी को अपनी चोंच में उठा कर महाराजा शिबी के सामने रख देता हे।
‌महाराजा शिबी कपोतक के द्वारा लाए उस अग्नि में लकड़ियां ओर सूखे पत्ते इकठ्ठे करके डालते हें ओर देखते ही देखते वह छोटी सी लकड़ी अग्नि में परिवर्तित हो जाती हैं। महाराजा शिबी की ठंड अग्नि से उड़ जाती हे ओर उनको थोडा आराम मिलता है। कपोतक की इस सेवा को देख महराजा शिबी भी एक पल को विचार में पड गए।

‌यह देख कपोतक का जोड़ा बेहद खुश होता है, थोड़ी रात ओर गहरी होती है ओर कपोतक पती को एक ओर विचार आता है वो अपनी पत्नि से कहता हैं।

‌कपोतक पती अपनी पत्नि से : हे प्रिये तुमने जो बात कहीं उससे इस मनुष्य का कितना भला हुआ हमें कितनी दुआए मिलेंगी उसके मनुष्य तन को कितना आराम मिला पर प्रिये अभी भी हमें इसकी और सेवा करनी चाहिए।

‌यह अतिथि भूखा हे ओर देखने में यह क्षत्रिय जान पड़ता हे अवश्य यह मांस का आहारी होगा। तुम क्या कहती हो प्रिये ?

‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हां स्वामी अवश्य यह कोई क्षत्रिय जान पड़ता हैं और शिकार की तलाश में जंगल में भटका हुआ हैं। तो अब आप क्या करने की सोच रहे हे स्वामी ?

‌कपोतक पती अपनी पत्नि से : हे प्रिये में अपना यह तन उस जलती अग्नि में डाल देना चाहता हूं ताकि मेरा यह तन उस अतिथि के पेट कि क्षुधा को शांत करने में काम आ सके।

‌कपोतक पत्नी अपने पति से : हां स्वामी यह अति उत्तम विचार है। में भी आपके साथ उस अग्नि में अपने तन की आहूति दुंगी ओर में भी आपके इस सेवा यज्ञ में आपके साथ हूं।

‌कपोतक पती अपनी पत्नि से : नहीं प्रिये तुम यदि अपनी आहुति दोगी तो हमारे दो बच्चों का क्या होगा ? तुम नहीं में अकेला ही अपनी आहुति दूंगा तुम यहीं रहो।

‌ऐसा कह कर कपोतक उड़कर महाराजा शिबी के सामने जल रही उस अग्नि में समा जाता है अपने पति के पीछे कपोतक की पत्नी भी एक पल सोचे बिना अपने दोनों बच्चों के साथ अग्नि में कूद पड़ती है।


‌महाराजा शिबी देखते है अरे यह तो वहीं कपोतक हैं जो अग्नि लाया था। महाराजा शिबी उस कपोतक के जोड़े को बचाने की खूब कोशिश करते है पर बचा नहीं पाते दोनों कपोतक और उनके दोनों बच्चों की मृत्यु हो जाती है।

‌यह देखकर महाराजा शिबी विचार करते है कि शायद अग्नि जलाने के कारण उस अग्नि से आकर्षीत हो के दोनों कपोतक मर गए है।

‌महाराजा शिबी मन में ऐसा विचार कर ही रहे थे तभी उनके सामने से पुष्पक विमान ( स्वर्ग ले जाने वाला विमान ) निकला और महाराजा शिबी ने उस विमान में कपोतक, उसकी पत्नी ओर उनके दोनों बच्चों को बैठा देखा। तभी अचानक से एक आकाशवाणी हुई हे राजन आप अभी भी अबोध हैं ? अब भी कुछ नहीं समझें ? हे राजन आप तो प्रजापति हैं। हे राजन आप मनुष्य देह प्राप्त करके भी नहीं कर सके वो इस कपोतक के जोड़े ने कर दिखाया है। क्या अब भी आप कुछ नहीं करेंगे जीवन में ?

‌इस आकाशवाणी को सुन महाराजा शिबी को मन में अपने प्रति दुख की और अपने इस मनुष्य देह के प्रति घृणा की भावना जागृत हुई ओर महाराजा शिबी के मन के द्वार खुल गए उसी क्षण उन्होंने निश्चय करते हे कि आज से इसी क्षण से में राजा शिबी अपना संपूर्ण जीवन, तन, मन और धन से कोइ ना कोई सत्कर्म में लगाऊंगा। मेरे शरण में आया याचक कभी निराश नहीं लोटेगा।

‌इस घटना के बाद महराजा शिबी ने दान और मानवता के लिए ऐसे कार्य किए जिनकी ख्याती के चर्चे एक दिन देवराज इन्द्र की सभा में पहुंचे। विश्वा मित्र और वशिष्ठ महाराज इन्द्र लोक की देव सभा में बैठे थे उसी दौरान वशिष्ठ जी महाराज शिबी के गुणगान एवम् उनके महिमा की बात कहते है। तभी इस बात को सुनकर विश्वा मित्र जी वशिष्ठ महाराज को टकोर कर के कहते हैं कि यह देव लोक है यहां मृत्यु लोक के मानव का आप गुणगान नहीं कर सकते। तब वशिष्ठ जी कहते है मेरा शिष्य है वो मुझे संपूर्ण भरोसा है उसकी नीति और धर्म पर। 

‌यह बात को सुनकर विश्वा मित्र देवराज इंद्र कहते है आप उनकी परीक्षा कीजिए। आप एक बाज बनिए और अग्नि देव को कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) का रूप दीजिए।

‌विश्वा मित्र जी की बात मानते हुए दोनों महाराजा शिबी के नगर पहुंचे। इंद्र देव बाज के रूप में तथा अग्नि देव कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) के रूप में महाराजा शिबी के दरबार में आए।

‌अग्नि देव कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) के रूप में थे वे उड़कर सीधे महाराजा शिबी की गोद में जा बेठे। महाराजा शिबी उन पर अपना हाथ लगाकर उस कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) को सहलाने लगे। कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) काफी डरा सहमा सा था।

‌महाराजा शिबी उस कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) को सहलाकर सांतवना दे रहे थे उतने में ही वहां थोड़ी देर बाद एक बाज उड़ता आया और कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) पर जपटने की कोशिश करने लगा तभी महाराजा शिबी ने उसको रोका और बाज से कहा तुम्हारी क्या दुश्मनी है इससे तुम क्यूं लड़ रहे।


‌बाज महाराजा शिबी से बोला : मैं बहुत भूखा हूं महाराज। आप मुजसे मेरा भोजन क्यूं छीन रहे हो इससे अच्छा आप मेरे प्राण क्यों नहीं ले लेते हैं ? आप यह पाप कर्म क्यूं कर रहे हैं। मुझे मेरा भोजन लोटा दीजिए।

‌बाज के ऐसे वचन सुन महाराजा शिबि बोले : तुम्हें सिर्फ़ मांस ही खाना है ना ? तो में इसकी व्यवस्था तुम्हें कर देता हूं तुम इस कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) को तुम छोड़ दो। कितना मांस खाना है तुम्हें ? 

‌बाज : हे राजन, यह कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) मारूं या दूसरा कोई प्राणी, मांस तो किसी जीव को मारने से ही प्राप्त होगा ? 

‌महाराजा शिबी विचार कर बोले : कोई अन्य प्राणी को नहीं मारूंगा। में अपना स्वयंम का मांस ही तुम्हें दूंगा। कितना मांस खाना है तुम्हें ? मुझसे कहो में दुंगा !

‌यह सुनकर इंद्र रूप में बाज बोले : हे महाराज में ना ज़्यादा खाऊंगा और ना कम मुझे इस कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) के भारो - भार का मांस यदि कोई तोल के दे तो में इस कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) को छोड़ दुंगा ! 

‌बाज की यह बात सुनकर राजा शिबी ने तुरन्त आदेश जारी कर एक तराजू मंगवाया और तराजू की एक और में कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) को बैठाया गया और तराजू की दूसरी और महाराज शिबी अपने शरीर के एक-एक अंगों को काट काट के रखते गए। आखिर में महा शिबी खुद पलड़े में बैठ गए।


‌पर जैसे जैसे महाराज शिबी मांस को तराजू के दूसरे पलड़े में डालते वैसे - वैसे आश्चर्यजनक रूप से उनका पलडा उपर उठ रहा था। जबकि कपोतक ( कबुतर की प्रजाति का एक पक्षी ) का पलडा भारी होता जा रहा था।

‌यह देख महाराजा शिबी समझ गए हो न हो यह कोई सामान्य पक्षी नहीं यह कोई देव रूप पक्षी है पर फिर भी वह रुके नहीं आखिर में वह खुद तराजू के पलडे में बैठ गए और अंत में अपने मस्तक पर तलवार ( शमशेर ) रखी।

‌तभी वहां साक्षात देवराज इंद्र और अग्नि देव प्रगट हो गए और उनके हाथ को रोक लिया तथा महाराजा शिबी से बोले हे राजन आप धन्य है में आपके त्याग और धर्म के प्रति श्रद्धा से अति प्रसन्न हुआ हुं। इंद्र देव ने आगे कहां की आप जो वरदान चाहीए में देने को तैयार हूं। 

‌तब भगवान की यह बात सुनकर महाराजा शिबी बोले हे भगवान इंद्र, हे देवराज आप अब किसिकी ऐसी कठिन परीक्षा मत कीजिएगा क्यूंकि आगे घोर कलयुग आने वाला है जिसमें मानव धर्म, भक्ति और भगवान को भूल जाएगा। कलयुग के मानवों के लिए आप भक्ति और धर्म के मार्ग को इतना कठिन ना कीजिए वरना आपका नाम कोई नहीं लेगा प्रभु कलयुग में आपको सब भूल जाएंगे।

‌राजा शिबी के इतना बोलते ही देवराज इंद्र और अग्नि देव तथास्तु कहकर अंतर ध्यान हो गए। इसके बाद राजा शिबी ने कई वर्षो तक राज किया और अंत में ईश्वर के परमपद को प्राप्त हुए।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ